मैं खिड़की पर बैठा अक्सर,
बाहर को देखा करता हूँ।
अपने जीवन की सच्चाई,
पढने की सोचा करता हूँ॥
क्षण-भंगुर है जीवन मेरा,
एस पल है, उस पल है नहीं,
अंतर्मन की में गहराई,
छूने की सोचा करता हूँ॥
कुदरत ने क्या क्या है बनाया,
नभ, धरती और चाँद सितारे,
दूर गगन में सूरज जैसा,
दिखने की सोचा करता हूँ॥
उडती चिड़िया को मैं देखूं,
मैं भी संग उड़ना चाहूँ,
उनके संग मैं दूर क्षितिज तक,
उड़ने की सोचा करता हूँ॥
जीवन जटिल, विषम है मेरा,
हर दिन युद्ध का नया सवेरा,
अंतिम साँसों तक मैं फिर भी,
लड़ने की सोचा करता हूँ॥
कविता अंतर्मन से निकले,
तो मन को हल्का करती,
अपनी हर इक आह पे कविता,
लिखने की सोचा करता हूँ॥
मन भावों का मंदिर है तो,
अभिव्यक्ति उसकी पूजा है,
अपने हर मनो-भाव पे मैं तो,
लिखने की सोचा करता हूँ॥
मैं खिड़की पर बैठा अक्सर,
बाहर को देखा करता हूँ।
अपने जीवन की सच्चाई,
पढने की सोचा करता हूँ॥
आपकी टिप्पणियों/सुझावों/मार्गदर्शन का आकांक्षी...
स-आदर॥
दीपक शुक्ल...
27 comments:
बहुत बहुत अच्छी प्रस्तुति
bahut hi behtareen...
shaandaar rachna....
यही प्रोब्लम है खिड़की में बैठने में ...इंसान सोचता बहुत है :) ..पर न बैठे तो कविता कैसे लिखी जाएगी...वो भी इतनी सुन्दर...
चित्र भी एकदम सूट करता है ..
जीवन जटिल, विषम है मेरा,
हर दिन युद्ध का नया सवेरा,
अंतिम साँसों तक मैं फिर भी,
लड़ने की सोचा करता हूँ॥
-बस यही जज़्बा रहे तो जीवन की हर कठिनाईयों से इंसान उबर सकता है.
--मन भावों का मंदिर है तो,
अभिव्यक्ति उसकी पूजा है,
-हर कवि के मन की बात कही आप ने!
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बहुत ही अच्छी भाव अभिव्यक्ति!
अच्छी लगी आप की कविता.
Deepak ji,
क्षण-भंगुर है जीवन मेरा,
एस पल है, उस पल है नहीं,
अंतर्मन की में गहराई,
छूने की सोचा करता हूँ॥
bas yahi to satya hai.. apna antarman..bahut achchhi prastuti..
sahaj soch . sahaj manobhaw, per jivan kee aapadhapi me kitne jatil ho jate hain...achhi abhivyakti
अनंत में देखते हुए अनंत सोच के साथ अंतर्मन को उकेरा है.....सुन्दर प्रस्तुति...
नमस्कार...
@ रचना जी,
सबसे पहली आपकी टिपण्णी मिली, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ...
@ शेखर जी,
आपने हमेशा ही मेरी हर कविता पर आपने अमूल्य शब्द लिखे..बहुत बहुत धन्यवाद्...ऐसे ही सदैव अपना प्रेम बनाये रखियेगा...
@ शिखा जी,
कविता तो अंतर्मन के भाव हैं, फिर वो खिड़की पर बैठ के लिखी जाए या कहीं और...है न...
आपकी टिपण्णी के लिए आभार...
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दीपक शुक्ल...
नमस्कार...
@ अल्पना जी,
आपने मेरी कविता को पढ़ा और अपने शब्दों से अलंकृत किया इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ॥
आपका बहुत बहुत धन्यवाद्....
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दीपक शुक्ल...
नमस्कार...
@ रश्मि जी,
आपने मेरे ब्लॉग पर पदापर्ण करके मेरा मान बढाया इसके लिए मैं आपका दिल से आभारी हूँ॥
आपका बहुत बहुत धन्यवाद्....
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दीपक शुक्ल...
नमस्कार...
@ संगीता दी,
आपने हमेशा ही मेरा उत्साह वर्धन किया है...
आपका बहुत बहुत धन्यवाद्....
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दीपक शुक्ल...
नमस्कार...
@ मुदिता जी,
आपके उत्साह वर्धन का धन्यवाद्...
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दीपक शुक्ल...
Manmohak rachna hai!!
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है! लाजवाब !
मैं खिड़की पर बैठा अक्सर,
बाहर को देखा करता हूँ।
अपने जीवन की सच्चाई,
पढने की सोचा करता हूँ॥
Behad sundar rachna...sundar chitr ke saath!
@ संजय जी,
आपका बहुत बहुत धन्यवाद् की आपने मेरी कविता पर अपनी अमूल्य टिपण्णी कर के मेरा उत्साह वर्धन किया...
दीपक शुक्ल...
@ बबली जी,
आपके उत्साह वर्धन का बहुत बहुत धन्यवाद् ।
दीपक शुक्ल...
@ क्षमा जी...
सर्वप्रथम आपके द्वारा मेरे ब्लॉग का अनुसरण करने का धन्यवाद्... कछुए की गति ही सही धीरे धीरे मुझे भी कुछ लोग पहचान रहे हैं, आपका बहुत बहुत धन्यवाद्...
आपके उत्साह वर्धन का आभारी हूँ...।
दीपक शुक्ल...
aap jitne acchhe mujhe rev.dete hain utne acchhe rev.me nahi de pati.aapki bahut bahut aabhari hu.
aapki rachna kavi man ke bhavo ki sachhayi ko ujagar karti bahut acchhi rachna hai. badhayi.
@ अनामिका जी,
आपका शुक्रगुज़ार हूँ की आपने मेरे ब्लॉग को पहली बार पढ़ा और मेरा मान बढाया...
आपका बहुत बहुत धन्यवाद्...
दीपक शुक्ल..
khidki par aksar main bhi baitha karti hun.
jo aap sochte hain,vahi main bhi socha karti hun.
baithe baithe kai sawaal,deemag main upjaa karte hain.
kab, kyun, kaise in sawaalo ke jawaab dhoonda karti hun.
रचना दार्शनिक स्थिति की है . अति सुन्दर ।
बाबा नागार्जुन की रचनाएँ घूम गयीँ ।
कुदरत ने क्या क्या है बनाया,
नभ, धरती और चाँद सितारे,
दूर गगन में सूरज जैसा,
दिखने की सोचा करता हूँ॥
उडती चिड़िया को मैं देखूं,
मैं भी संग उड़ना चाहूँ,
बड़ी अच्छी अच्छी बातें सोचा करते हैं...बस इन सोचों पे लगाम की जरूरत नहीं...बहुत ही ख़ूबसूरत रचना
very nice....kaafi accha likha hai aap ne
मैं खिड़की पर बैठा अक्सर,
बाहर को देखा करता हूँ।
अपने जीवन की सच्चाई,
पढने की सोचा करता हूँ॥
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया.... बहुत सुंदर कविता...
waah.........behtreen abhivyakti.
bahut hi gahan bhaw apne apme sanjoye hue......bahut sunder rachna!!!!!!
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