Tuesday, November 29, 2011

नमस्कार मित्रो...

आज एक लम्बे अंतराल के बाद मैं पुनः लौटा हूँ...इस बीच तन से दूर रहा पर मेरा मन यहीं था...आप सबके बीच..इस बीच आप सबके कई भावपूर्ण लेख, कवितायेँ, ग़ज़लें, नज्में मैं नहीं पढ़ और न ही मैं चाह कर भी किसी नयी पोस्ट अथवा यथासंभव कवितामय टिप्पणियों या विशुद्ध भाषा मैं कहें तो अपनी तुकबंदियों के जरिये इतने दिन आप सबसे  संवाद न  कर सका, जिसका मुझे ह्रदय  से दुःख है....

तो लीजिये आज मैं पुनः  अपने ब्लॉग को नवजीवन देने का प्रयत्न कर रहा हूँ. अपनी इक नयी  कविता के साथ जो मैंने अपने आप पर लिखी है और इस कविता मैं मैंने खुद को कवि समझने की धृष्टता की है, जिसके लिए आप सब से क्षमा चाहता हूँ......यूँ तो सब मुझे जानते ही हैं पर .इस कविता मैं मैंने खुद को समेटने का प्रयत्न किया है..मैं जैसा हूँ, जो हूँ, वो आप सबकी नज़र है...अब आप ही बताएं की मैं अपने प्रयत्न में कितना सफल रहा...


हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ... 

न छंदों, न गजलों, न गीतों में, रहता..
जो दिल में, है आता, वही मैं हूँ, लिखता..
मैं आठों पहर हूँ, "कविता" के संग ही ...
"कविता" ही,  मेरे है, जीवन में बसती..
कभी जाम,  मैंने, पिया न है,  फिर भी..
नशा ऐसा,  मुझको, संभालता नहीं हूँ...

हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ...

न कातिल, अदाओं, में रहता हूँ,  मैं तो..
न कडवे को, मीठा, सा कहता हूँ,  मैं तो..
न सूखे में,  बारिश की, बूँदें गिराता..
न सड़कों पे,  कागज़ की, नावें चलाता..
है जो कुछ, है जैसा, वही मैं हूँ कहता..
मैं कुछ भी, तो खुद से, बदलता नहीं हूँ...

हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ...

न बातों,  में मेरे, कोई ऐसा,  रस है..
न जीवन,  ही मेरा, सहज' और,  सरस है..
नियति से,  ज्यादा, समय से हो,  पहले..
जो मिलता,  है उस पर, कहाँ मेरा,  बस है..
में जैसा हूँ, जो हूँ, उसी में ही,  खुश हूँ..
कहीं देख कुछ भी, मचलता नहीं हूँ...

हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ...

जो करता हूँ , दिल से, मैं वो बात करता..
मैं कविता, के जरिये, ही संवाद करता..
न दिल में, मेरे है, शिकायत या शिकवा..
न ही मैं, कभी भी, हूँ फ़रियाद करता..
मैं जीवन,  की नैया को, खेता रहा हूँ...
किनारा मिला,  पर, निकलता नहीं हूँ...

हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ...

कोई मान मुझको,  मिला न है,  ऐसा..
कविता के बदले, नहीं चाहा,  पैसा...
न पुस्तक, कोई मेरी, जारी हुई है..
न चर्चा, ही कोई, हमारी हुई है...
जो है,  प्यार पाया, वो है,  आप सबका..
मैं ठहरा हुआ हूँ, मैं चलता नहीं हूँ...

हूँ "दीपक", मगर, मैं तो जलता नहीं हूँ..
कवि हूँ, कवि सा, मैं लगता नहीं हूँ...

आपके सुझावों/टिप्पणियों/मार्गदर्शन की प्रतीक्षा में....

सादर..

दीपक शुक्ल

Tuesday, February 15, 2011

"प्रेम दिवस"



नमस्कार मित्रो....

यूँ तो कल ही एक ग़ज़ल आप सबकी नज़र की है...पर प्रेम दिवस पर सोचा की मैं भी कुछ लिखूं और देखिये एक ग़ज़ल बन गयी है....आप भी पढ़िए और बताइए की कैसी लगी....


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मयकश कई हैं प्रेम के, मय की तलाश में...
साकी है पशोपेश में, किसको शराब दे....

लेकर गुलाब फिर रहे, हैं कितने मनचले....
ऐसे में कोई हम से फिर, कैसे गुलाब ले...


कहने को दिवस प्रेम का, आता है हर बरस...
अरसे से एक फूल है, सुखा किताब में...

शिद्दत कहाँ है, अब कहाँ, है प्यार में वो बात...
पैसा अहम् है, प्यार से, सबके हिसाब में...

मेरे खतों को फाड़ कर, भेजा था एक रोज़...
हमको नहीं गिला है, मिला, क्या जवाब में....

खुद को मिटा के हम तेरे, कुछ काम आ गए...
हस्ती मेरी कुछ काम तो, आई सब़ाब में....

मेरी तो हरेक बात में, रहते हो इस कदर...
देखा कहीं भी तुम रहे, अर्जे आदाब में....

"दीपक" तो उनके प्यार में, बरसों से जल रहा...
दीदार को तरसे हैं हम, और वो हिजाब में...

उनसे नज़र मिलाने की, चाहत रही, मगर...
वो तो नज़र झुकाए ही, आते हैं ख्वाब में....

आपकी टिप्पणियों/सुझावों/मार्गदर्शन का आकांक्षी...

दीपक शुक्ल...

Friday, February 11, 2011

" मेरा दर्द..."


नमस्कार मित्रो...

आज मैं काफी दिनों के उपरांत पुनः प्रस्तुत हुआ हूँ । इस बीच मैं करीब चार महीने तक इलाहबाद की पावन भूमि पर रह रहा था और अब पुनः अपनी पुरानी जगह पर वापस आ गया हूँ। कई मित्रों ने मुझे मेल और व्यक्तिगत तौर पर आग्रह किया कि मैं अपने ब्लॉग को पुनः संचारित करूँ जिसे समयाभाव एवं अन्य कारणों से पिछले कुछ दिनों से संचालित नहीं कर पा रहा था.

तो
लीजिये प्रस्तुत है मेरी एक रचना....जिसे मैंने कुछ समय पूर्व लिखा था और आज आप सबके साथ बाँट रहा हूँ....आशा है मेरा यह प्रयास आप सभी को अच्छा लगेगा....
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मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...

लाशों के ढेरों पर बैठी, मानवता को देखा है...
ऐसी मानवता से मैं तो, बचकर सदा निकलता हूँ...

भूखा रहकर मैंने कितनी बार, भूख को जाना है...
भूखे और बेचारों की मैं, मदद सदा ही करता हूँ...

कितनी माओं ने छोड़ा है, बच्चों को तो सड़कों पर...
उनके जिगर के टुकड़ों को मैं, अपना सदा समझता हूँ...

धरती के बेटों को जब भी, मरता मैं देखा है...
उनका दर्द समझकर कितनी, बार ही मैं भी मरता हूँ...

कितने ही लोगों को मैंने, रोज़ सिसकते देखा है...
टूट के उनकी आहों से मैं, खुद भी सदा बिखरता हूँ...

कितनी बार जलाई बहूएँ, निर्दयी निष्ठुर लोगों ने...
उनकी निर्दयता पे अक्सर, मैं तो सदा सुलगता हूँ....

मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...


आपकी टिप्पणियों/मार्गदर्शन/ सुझावों की प्रतीक्षा में.....


दीपक शुक्ल.....

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