नमस्कार मित्रो...
आज मैं काफी दिनों के उपरांत पुनः प्रस्तुत हुआ हूँ । इस बीच मैं करीब चार महीने तक इलाहबाद की पावन भूमि पर रह रहा था और अब पुनः अपनी पुरानी जगह पर वापस आ गया हूँ। कई मित्रों ने मुझे मेल और व्यक्तिगत तौर पर आग्रह किया कि मैं अपने ब्लॉग को पुनः संचारित करूँ जिसे समयाभाव एवं अन्य कारणों से पिछले कुछ दिनों से संचालित नहीं कर पा रहा था.
तो लीजिये प्रस्तुत है मेरी एक रचना....जिसे मैंने कुछ समय पूर्व लिखा था और आज आप सबके साथ बाँट रहा हूँ....आशा है मेरा यह प्रयास आप सभी को अच्छा लगेगा....
******************************************
मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...
लाशों के ढेरों पर बैठी, मानवता को देखा है...
ऐसी मानवता से मैं तो, बचकर सदा निकलता हूँ...
भूखा रहकर मैंने कितनी बार, भूख को जाना है...
भूखे और बेचारों की मैं, मदद सदा ही करता हूँ...
कितनी माओं ने छोड़ा है, बच्चों को तो सड़कों पर...
उनके जिगर के टुकड़ों को मैं, अपना सदा समझता हूँ...
धरती के बेटों को जब भी, मरता मैं देखा है...
उनका दर्द समझकर कितनी, बार ही मैं भी मरता हूँ...
कितने ही लोगों को मैंने, रोज़ सिसकते देखा है...
टूट के उनकी आहों से मैं, खुद भी सदा बिखरता हूँ...
कितनी बार जलाई बहूएँ, निर्दयी निष्ठुर लोगों ने...
उनकी निर्दयता पे अक्सर, मैं तो सदा सुलगता हूँ....
मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...
आपकी टिप्पणियों/मार्गदर्शन/ सुझावों की प्रतीक्षा में.....
दीपक शुक्ल.....
आज मैं काफी दिनों के उपरांत पुनः प्रस्तुत हुआ हूँ । इस बीच मैं करीब चार महीने तक इलाहबाद की पावन भूमि पर रह रहा था और अब पुनः अपनी पुरानी जगह पर वापस आ गया हूँ। कई मित्रों ने मुझे मेल और व्यक्तिगत तौर पर आग्रह किया कि मैं अपने ब्लॉग को पुनः संचारित करूँ जिसे समयाभाव एवं अन्य कारणों से पिछले कुछ दिनों से संचालित नहीं कर पा रहा था.
तो लीजिये प्रस्तुत है मेरी एक रचना....जिसे मैंने कुछ समय पूर्व लिखा था और आज आप सबके साथ बाँट रहा हूँ....आशा है मेरा यह प्रयास आप सभी को अच्छा लगेगा....
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मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...
लाशों के ढेरों पर बैठी, मानवता को देखा है...
ऐसी मानवता से मैं तो, बचकर सदा निकलता हूँ...
भूखा रहकर मैंने कितनी बार, भूख को जाना है...
भूखे और बेचारों की मैं, मदद सदा ही करता हूँ...
कितनी माओं ने छोड़ा है, बच्चों को तो सड़कों पर...
उनके जिगर के टुकड़ों को मैं, अपना सदा समझता हूँ...
धरती के बेटों को जब भी, मरता मैं देखा है...
उनका दर्द समझकर कितनी, बार ही मैं भी मरता हूँ...
कितने ही लोगों को मैंने, रोज़ सिसकते देखा है...
टूट के उनकी आहों से मैं, खुद भी सदा बिखरता हूँ...
कितनी बार जलाई बहूएँ, निर्दयी निष्ठुर लोगों ने...
उनकी निर्दयता पे अक्सर, मैं तो सदा सुलगता हूँ....
मैं मन में हूँ रोया अक्सर, ऊपर दिखता हँसता हूँ.
दुनिया का मैं दर्द देखकर, भीतर जलता रहता हूँ...
आपकी टिप्पणियों/मार्गदर्शन/ सुझावों की प्रतीक्षा में.....
दीपक शुक्ल.....
8 comments:
bahuta acchaa likhaaa
para itana dard theek nahi
मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।
आदरणीय दीपक जी, बहुत दिनों के बाद आपके और आपकी पोस्ट के दर्शन हुए बेहद दर्द भरा है आपकी प्रस्तुती में, पर यही सच है और आज के समाज का चेहरा भी .
Deepak ji
welcome back...
aapki yeh rachna man ko chu gayi
sach main hamare charo aur jo mahol
hain usse dil main aise hi bhav uthte hain,jaise aapke dil main uthte hain.
ham to bas yahi kar sakte hain,khud bhi muskuraye aur logo main khushiya baate,ho sake to unke dukh dard ko dur karne ka ek pryaas jarur kar sakte hain.
ek baar fir aapki is khubsurat rachna ke liye aapko badhai.
उम्दा रचना है ..अब आ गए हैं वापस तो जल्दी जल्दी रचनाएँ पढ़वाईए..
bahut hi achhi rachna ...
badhiyaa
संवेदना के स्तर पर उत्कृष्ट प्रस्तुति!
'कितनी माओं ने छोड़ा है, बच्चों को तो सड़कों पर...
उनके जिगर के टुकड़ों को मैं, अपना सदा समझता हूँ...'
'कितनी माओं ने छोड़ा है, बच्चों को तो सड़कों पर...
उनके जिगर के टुकड़ों को मैं, अपना सदा समझता हूँ...'
जानते हो बहुत कुछ तुम मे अपना-सा पाती हूँ मैं
जब भी देखती हूँ ऐसे हादसे,विचलित हो जाती हूँ
खुद को को सड़क,नाली मे पड़े बच्चे मे पाती हूँ मैं
इंसान की जिंदगी से बड़ी नही होती कोई भी
बात,धर्म,पूजा,आदर्श,सिद्धांत या मानसम्मान
सबको ताक पर रख देती हूँ एक झटके से मैं
उनके लिए परवाह नही करती किसी की
भिड़ जाती हूँ...बचा लेती हूँ उनमे से कुछ को
घर परिवार माँ बाप मिले उनको भी
बस इसी कोशिश मे जुट जाती हूँ मैं
जब पहुँच जाता है कोई बच्चा किसी परिवार मे
खुशी के मारे बहुत रोती हूँ मैं
आत्मश्लाघा न समझना बेटा इसको
शायद कोई इस राह को चुन ,चल दे साथ मेरे
मेरे बाद भि चलता रहे ये सिलसिला
इसीलिए अक्सर ऐसी बाते बतलाती हूँ मैं
दर्द की बाते करके दर्द को महसूस करना ही तो काफी नही होता न?
इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ,बस ...वो ही करती हूँ मैं
सोच खूबसूरत है तुम्हारी,इंसानियत जिन्दा है तुम जैसों से
बस एक काम करो,अपने लिखे को जी जाना
गले लगा लूंगी तब,.....मेरे पास आना
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